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सियासत केवल ‘हॉर्स ट्रेडिंग’नहीं कर रही है बल्कि अब बुद्धिजीवियों को भी बाँट रहीहै .लिंचिंग विवाद पर देश के बुद्धिजीवियों का दो खेमों में बांटना इसका ताजा उदाहरण है. देश के ४९ बुद्धिजीवियों ने लिंचिंग के लिए ‘जय श्रीराम के नारे को एक औजार बताने से बिलबिलाये भाजपा समर्थक ६१ बुद्धिजीवी विरोध में आ खड़े हुए,उन्होंने लिंचिंग पर बात करने के बजाय नक्सलियों द्वारा की जा रही हत्याओं को मुद्दा बना लिया .मजे की बात ये है कि लिंचिंग पर सरकार मौन है और मजे ले रही है.
आपको यद् होगा कि देश में मॉब लिंचिंग और ‘जय श्री राम’ के नारे की आड़ में हो रही हिंसा पर चिंता वक्त करते हुए पिछले दिनों 49 हस्तियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा था। इसके तीन दिन बाद शुक्रवार को 62 हस्तियों ने जवाब में उन्हें खुला खत लिखा। पत्र का विरोध करने वालों में कंगना रनौत, प्रसून जोशी और मधुर भंडारकर भी शामिल हैं। उनका कहना है कि कुछ लोग चुनिंदा तरीके से सरकार के खिलाफ गुस्सा जाहिर करते हैं। इस विरोध का मकसद सिर्फ लोकतांत्रिक मूल्यों को बदनाम करना है। उन्होंने पूछा कि जब नक्सली आदिवासियों और वंचित लोगों को निशाना बनाते हैं तब वे क्यों चुप रहते हैं?
सरकार को जगाने के लिए पात्र लिखने वाले बुद्धिजीवियों में शामिल अभिनेत्री कंगना रनौत, गीतकार और सेंसर बोर्ड अध्यक्ष प्रसून जोशी, नृत्यांगना सोनल मानसिंह, मोहन वीणा वादक पंडित विश्वमोहन भट्ट, फिल्मकार मधुर भंडारकर, विवेक ओबेरॉय और विवेक अग्निहोत्री शुरू से भाजपा के साथ ही नहीं है बल्कि भाजपा से लाभान्वित भी होते आये हैं इसलिए उनकी विवशता है कि वे सरकार के पक्ष में बोलें,उन्हें बोलना भी चाहिए लेकिन उन्होंने जिस तरिके से सवाल किये हैं वैसे सवाल कोई राजनीतिक दल ही कर सकता है कोई बुद्धिजीवी नहीं .भाजपा समर्थक बुद्धिजीवी सवाल करते हैं कि देश में आदिवासी और हाशिए पर मौजूद लोगों को निशाना बनाने, कश्मीर में अलगाववादियों के द्वारा स्कूल जलाने, नामी यूनिवर्सिटी में आतंकियों के समर्थन में भारत के टुकड़े-टुकड़े के नारे लगने पर बुद्धिजीवियों की चुप्पी क्यों बनी रहती है?
यह विरोध अंतराराष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि, प्रधानमंत्री के कामकाज के कारगर तरीके, राष्ट्रीयता और मानवता के खिलाफ है, जो भारतीयता के मूल्यों में शामिल है। संविधान ने हमें असहमति जताने का अधिकार दिया है, न कि भारत को तोड़ने की कोशिश करने का। लोगों का यह समूह महिलाओं को समानता का हक दिलाने और तीन तलाक के पक्ष में कभी खड़ा नहीं हुआ।
भाजपा समर्थक बुद्धिजीवी केवल सवाल ही नहीं कर रहे बल्कि परोक्ष रूप से सत्ता विरोधी बुद्धिजीवियों पर आरोप भी लगा रहे हैं कि-‘ ऐसा लगता है कि अभिव्यक्ति की आजादी के सामने विरोध करने वालों के लिए देश की एकता और अखंडता के कोई मायने नहीं हैं। वैचारिक रूप से उनका अलगाववादियों, घुसपैठियों और आतंकियों के समर्थन का रिकॉर्ड रहा है। इसलिए उनके अंदर विरोध की भावना है। जबकि मोदी सरकार सबका साथ सबका विकास के मंत्र के साथ आगे बढ़ रही है और प्रधानमंत्री स्वयं लिंचिंग की घटनाओं की आलोचना कर चुके हैं।’यानि कि इन लोगों को देश से ज्यादा प्रधानमंत्री की छवि की चिंता है .
गत 23 जुलाई को प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखने वाली 49 हस्तियों में इतिहासकार रामचंद्र गुहा, अभिनेत्री कोंकणा सेन शर्मा, फिल्मकार श्याम बेनेगल, अनुराग कश्यप और मणि रत्नम समेत अलग-अलग क्षेत्रों की हस्तियां शामिल थीं। उन्होंने लिखा- मुस्लिमों, दलितों और अन्य अल्पसंख्यकों पर हो रही लिंचिंग पर तत्काल रोक लगनी चाहिए।
इन लोगों ने कोरे आरोप नहीं लगाए बल्कि सरकारी एजेंसी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के हवाले से ये भी बताया कि देश में 2016 में दलितों के खिलाफ उत्पीड़न की 840 घटनाएं हुईं। लेकिन इन मामलों के दोषियों को मिलने वाली सजा का प्रतिशत कम हुआ।लोगों का कहना था कि इन दिनों “जय श्री राम” हिंसा भड़काने का एक नारा बन गया है। इसके नाम पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं हो रही हैं। यह दुखद है। जनवरी 2009 से 29 अक्टूबर 2018 तक धार्मिक पहचान के आधार पर 254 घटनाएं हुईं। इसमें 91 लोगों की मौत हुई जबकि 579 लोग घायल हुए। मुस्लिमों (कुल जनसंख्या के 14%) के खिलाफ 62% मामले, ईसाइयों (कुल जनसंख्या के 2%) के खिलाफ 14% मामले दर्ज किए गए। मई 2014 के बाद से जबसे आपकी सरकार सत्ता में आई, तब से इनके खिलाफ हमले के 90% मामले दर्ज हुए।
इस विवाद से बहुत पहले मैंने मअब लिंचिंग पर अपनी बात रखी थी,मै आज भी अपनी बात पर कायम हूँ और कहता हूँ कि इन घटनाओं को गैर-जमानती अपराध घोषित करते हुए तत्काल सजा सुनाई जानी चाहिए। यदि हत्या के मामले में बिना पैरोल के मौत की सजा सुनाई जाती है तो फिर लिंचिंग के लिए क्यों नहीं? यह ज्यादा जघन्य अपराध है। नागरिकों को डर के साए में नहीं जीना चाहिए।दुःख की बात ये है कि अब देश में असहमति रखना और किसी भी मुद्दे पर बात करना खतरनाक हो चला है . सरकार के विरोध के नाम पर लोगों को ‘राष्ट्र-विरोधी’ या ‘शहरी नक्सल’ नहीं कहा जाना चाहिए और न ही उनका विरोध करना चाहिए। अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। असहमति जताना इसका ही एक भाग है।
देश में बुद्धिजीवियों का विभाजित होना कोई नयी बात नहीं है लेकिन जिस तरीके से अब ये बुद्धिजीवी खुलकर सरकार की वकालत करने लगे हैं ये चिंताजनक है. बुद्धिजीवी वैचारिक रूप से बहले किसी सत्ता के साथ रहें किन्तु अंतत”उन्हें जनता के साथ ही रहना चाहिए,इसके बिना लोकतंत्र नहीं बच सकता .और आज की तारीख यही इशारे कर रही है कि लोकतंत्र खतरे में है क्योंकि क़ानून का राज अदृश्य होता जा रहा है और भीड़ सड़कों पर खुद फैसले करने लगी है .