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होली पर ताजा खबर आयी है कि आगामी लोकसभा चुनाव में मतदान न करने वालों के बैंक खाते से चुनाव आयोग 350 रूपये सीधे वसूल कर लेगा .चुनाव आयोग ने ये फैसला करने के साथ ही अदालत में कैविएट भी लगा दी है ताकि मामला खटाई में न पड़ जाये .भले ही ये कपोल-कल्पित खबर है किन्तु इस खबर से देश में हड़कंप तो मच गया .
भारत में जन प्रतिनिधित्व क़ानून है और उसममें समय-समय पर संशोधन होते रहते हैं लेकिन चुनाव आयोग या संसद ने ये नया प्रावधान किस संशोधन के जरिये और कब कर दिया ये कोई नहीं जानता .जान भी कैसे सकता है जबकि पिछले पांच साल से सवाल पूछना ही राष्ट्रद्रोह समझा जाने लगा हो .चुनाव आयोग के इस नए फैसले की भनक अवाम को अखबारों के जरिये लगी ..खबर होली पर जन्मी लेकिन सहज हास्य के लिए रची गयी इस खबर से देश में हड़कंप मच गया ,चुनाव आयोग ने इस मजाक पर मौन साधा तो खबर अपने आप गंभीर हो गयी .
होली पर रची जाने वाली खबरों में भी भविष्य की आहत छिपी होती है,मुमकिन है कि आज ये खबर बेबुनियाद हो लेकिन कल इसे आकार मिल जाये क्योंकि खुराफात काई की तरह है कभी भी फिसलन बढ़ा सकती है .भारत में मतदान को लेकर मतदाताओं की दिलचस्पी लगातार घटती-बढ़ती रहती है .मतदान के प्रति अरुचि का कारण राजनीति और व्यवस्था के प्रति बढ़ता अविश्वास है. आर्थिक घपलों-घोटालों और भाई-भतीजावाद ने मतदाता के मन में निअराशा बाहर दी है ,इसलिए आम तौर पर मतदाता कतार में लगकर मतदान देने से कतराता है .
मतदान के लिए कतारें उन मतदाताओं की लगती हैं जो अब तक झूठी तसल्ली पर जीते आये हैं या जिन्हें भेड़ों की रेवड़ की तरह आज भी हांका जा सकता है .जहाँ जागरूकता है वहां मतदान का प्रतिशत बढ़ता है लेकिन शत-प्रतिशत मतदान कहीं भी नहीं हो पाता.चुनाव आयोग ने समय के साथ मतदान को प्रभावी बनाने के लिए अनेक उपाय किये हैं लेकिन ये भी मतदान का प्रतिशत बढ़ाने में बहुत ज्यादा कारगर साबित नहीं हुए .अब सवाल है कि क्या भविष्य में मतदान को अनिवार्य कर लोकतंत्र को मजबूत किया जा सकता है ?या ये केवल कपोल-कल्पना ही बना रहेगा ?
समय के साथ अब मतदान के लिए तकनीक का सहारा लिया जाना आवश्यक है.दूर-दराज नौकरी-धंधा करने वाले लोग प्राय मतदान के दिन अपने घरों पर नहीं होते ,उन्हें ी-मतदान की सुविधा देकर मतदान का प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है .अन्यथा केवल मतदान के लिए कोई भी मतदाता दस-पांच हजार रूपये खर्च कर ठिकाने पर नहीं पहुँच सकता .कुल मिलाकर कहना ये है कि चुनाव आयोग मतदाता को गरीब की जोरू न समझे और प्रत्याशियों,तथा राजनीतिक दलों के मुकाबले मतदाता को भी ध्यान में रखकर भविष्य की व्यवस्थाओं के बारे में सोचे .