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(Dheeraj Bansal)
लोग भले ही चौंके हों लेकिन कल मुझे अच्छा लगा कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी दिल्ली के रकाबगंज गुरूद्वारे में बिना किसी तामझाम के मत्था टेकने जा पहुंचे .अभिनय में दक्ष एक प्रधानमंत्री की ये सादगी समय की मांग भी है और विनम्रता की निशानी भी ,लेकिन उनकी अरदास में निहित सियासी सन्देश ने सब गुड़-गोबर कर दिया .वे ऐसे समय रकाबगंज गुरुद्वारा पहुंचे जब गुरु तेग बहादुर के असंख्य अनुयायी दिल्ली की देहलीज पर खुले में ठिठुर रहे हैं .
देश के किसानों के आंदोलन के पच्चीस दिन बीत गए हैं लेकिन सरकार की और से किसी ने भी इतना साहस नहीं दिखाया है कि कोई मंत्री बिना किसी तामझाम के आंदोलनरत किसानों के बीच बातचीत करने के लिए पहुँच जाता .प्रधानमंत्री किसानों के पास पहुंचेंगे ये सोचना तो मूर्खता है .प्रधानमंत्री के पास इतनी फुर्सत कहाँ ? वे रकाबगंज भी इससे पहले कितनी बार गए हैं .वो तो गुरु के भक्तों का दबाब था जो उन्हें गुरुद्वारे तक ले गया .उन्होंने गुरुद्वारे में अरदास करते हुए किसान आंदोलन के समापन की विनती की या नहीं,ये वे ही जानें लेकिन सब जानते हैं कि उनकी नींद किसानों ने ही उड़ा रखी है .
प्रधानमंत्री इससे पहले किसानों से बातचीत करने के लिए काशी भी जा चुके हैं,लेकिन उन्हें जहां जाना चाहिए ,वहां जाने का न तो उनके पास साहस है और न कोई योजना .उनके सलाहकार गलत हैं या वे खुद ये भी कहना कठिन हैं,क्योंकि एक कामयाब प्रधानमंत्री के सलाहकार और उनके फैसले शायद ही गलत होते हों ! मुझे लगता है कि यदि प्रधानमंत्री जी ने किसान आंदोलन को विपक्ष की साजिश और देशद्रोही कृत्य न माना होता,या इस आंदोलन को अपनी प्रतिष्ठा से न जोड़ा होता तो ये आंदोलन चुटकियों में समाप्त हो सकता था .प्रधानमंत्री जी रकाबगंज गुरुद्वारे के बजाय यदि बिना तामझाम के किसानों के बीच पहुँच जाते तो कोई कारण नहीं है कि किसान उनकी बात का सम्मान न करते .
देश का दुर्भाग्य ये है कि अहंकार हर बनते काम को बिगाड़ रहा है. पंतप्रधान झुकने को राजी नहीं हैं और किसानों को झुकाने की कोई तरकीब सरकार के पास नहीं है. सरकार किसी भी कीमत पर किसानों के लिए बनाये गए क़ानून वापस लेने को राजी नहीं हैं और किसान भी बिना कानूनों की वापसी के अपने घर जाने को तैयार नहीं है .बीते पच्चीस दिनों में आंदोलन को समाप्त करने के बजाय आंदोलन की आग में घी डालने का काम किया जा रहा है .बातचीत के रास्ते बंद कर दिए गए हैं.खतो-किताबत से काम चलाया जा रहा है .
एक बात तय है कि किसानों का आंदोलन सरकारी टोटकों से या इधर-उधर अरदासें करने से तो टूटने वाला नहीं है. सरकार को क़ानून वापस लेकर या उन्हें मुल्तबी कर उन पर दोबारा विचार करने का भरोसा दिलाना ही होगा .देश में बन्दूक को छोड़ कोई ताकत नहीं है जो किसानों को दिल्ली की देहलीज से हटा सके और सरकार में भी इतना साहस नहीं है कि वो शांतिपूर्वक आंदोलन कर रहे किसानों पर बल प्रयोग कर सके .सरकार किसान आंदोलन को अवसादग्रस्त कर निबटाना चाहती है .आंदोलन स्थल पर रोजाना एक न एक किसान की अकाल मौत हो रही है ,लेकिन सरकार का दिल नहीं पसीज रहा .सरकार की इस संगदिली से देश में नाराजगी और बढ़ रही है .किसानों के प्रति सहानुभूति से आंदोलन को ताकत मिल रही है .लेकिन सरकार को ये सब दिखाई नहीं दे रहा .
किसान आंदोलन के इस दौर में सरकार की प्राथमिकता में किसान नहीं बंगाल है .बंगाल में चुनावों में अभी वक्त है.सरकार अपनी और अपनी पार्टी की समूची ताकत को बंगाल में झोंकने के बजाय यदि किसान आंदोलन के निबटारे में लगाती तो मुमकिन है कि कोई न कोई सकारात्मक परिणाम सामने आ जाते ,लेकिन आपके-हमारे सोचने से क्या होता है ?ये काम सरकार के सोचने का है .मुझे तो हैरानी होती है कि जिस देश में इतना बड़ा किसान आंदोलन चल रहा हो उस देश का गृह मंत्री कैसे ‘ लंच डिप्लोमेसी’ में उलझा रह सकता है ?.देश कि जनता दोनों तस्वीरें देखती है. एक तरफ ठण्ड में जमते किसान हैं और दूसरी तरफ भोज उड़ाते गृहमंत्री जी .
किसान आंदोलन की वजह से देश को प्रतिदिन 3500 करोड़ का नुक्सान हो रहा है ,ऐसा दावा कतिपय व्यापारिक सांगठनों का है ,लेकिन सरकार को इस नुक्सान की फ़िक्र नहीं है. .सरकार की इस बेफिक्री के पीछे कोई तो ताकत होगी अन्यथा सरकार ऐसा कैसे कर सकती है ?हमें ये मानने में कोई हिचक नहीं है कि देश में जनादेश से चुनी सरकार काम कर रही है लेकिन हमें ये कहने में भी कोई संकोच नहीं ही कि जनादेश से चुनी सरकार जनादेश का खुलेआम निरादर भी कर रही है .यदि जनता की चुनी हुई सरकार है तो उसे जनता से संवाद भी बनाये रखना चाहिए .संवादहीनता किसी समस्या का इलाज नहीं है .
आपको याद होगा कि सरकार किसानों के मुद्दे पर आज दूसरी बार रेडियो पर मन की बात करेगी.इससे पहले सरकार काशी और कच्छ से बातचीत कर चुकी है लेकिन समाधान का दरवाजा नहीं खुल पा रहा है .समाधान का दरवाजा खुलवाने के लिए प्रधानमंत्री ने गुरुद्वारे में भी अरदास कर ली है .एक प्रधानमंत्री इससे ज्यादा और क्या कर सकता है भला ?प्रधानमंत्री आखिर प्रधानमंत्री होता है उसे डराकर या दबाब देकर तो आप बातचीत के लिए मजबूर नहीं कर सकते ! दिल्ली की देहलीज पर अभी पता नहीं कितने किसानों की शहादत होना बाक़ी है ,पता नहीं कब इस आंदोलन का समापन होगा ?क्योंकि अनिश्चय कम होने के बजाय दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है .
किसान आंदोलन से निबटने के लिए जो तरीके सरकार और सरकारी पार्टी ने अभी तक अख्तियार किये हैं वे ‘ बांटो और राज करो ‘ की नीति से प्रेरित हैं. कानूनों के समर्थन में अपने समर्थकों को दिल्ली बुलाने की कार्रवाई किसानों में टकराव पैदा कर सकती है .किसानों को आपस में भिड़वाने से स्थिति समान्य होने के बजाय और विस्फोटक हो सकती है .बेहतर हो कि सरकार आग से न खेले.इस समय आंदोलन की आग बुझाने की जरूरत है,भड़काने की नहीं .किसानों को आपस में लड़वाने के बजाय तो संसद का विशेष सत्र बुलाकर इस मामले को निबटाया जा सकता है. सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों,कृषि मंत्रियों की बैठक बुलाई जा सकती है .पर पहल कौन करे ?उम्मीद करना चाहिए कि पंतप्रधान जिस तरह से गुरूद्वारे में मत्था तक रहे हैं उसी तरह गुरु के भक्तों के सामने भी अपना मत्था टेककर इस आंदोलन को सम्मानजनक तरीके से समाप्त करने में कामयाब हो सकेंगे.