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पंद्रह साल बाद प्रदेश की सत्ता पर काबिज हुई कांग्रेस के नवाचार में एक नया खेल शुरू हो गया है,इसे पुलिस के इक़बाल से खिलवाड़ कहा जा सकता है .प्रदेश सरकार ने पुलिस महकमे में 80 प्रतिशत अधिकारियों को नीचे से ऊपर तक बदला तो लगा कि इसकी प्रशासनिक जरूरत है लेकिन जब पुलिस आक्धीक्षक स्तर के अधिकारियों को सरेआम क़ानून और व्यवस्था से खिलवाड़ करने वाले लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने पर रातों-रात बदला जाने लगा तब ये प्रमाणित हो गया की सरकार सूबे में पुलिस का इक़बाल बुलंद करना ही नहीं चाहती ?
जगजाहिर है की प्रदेश की पुलिस का डेढ़ दशक में पूरी तरह राजनीतिकरण हो गया था और इसका खामियाजा प्रदेश की जनता ने भी भुगता .महिला उत्पीड़न से लेकर हर तरह के अपराधों में मध्यप्रदेश शीर्ष पर पहुँच गया .ऐसी पुलिस में बदलाव जरूरी था लेकिन नयी सरकार तो पुरानी सरकार से दो हाथ आगे निकलती नजर आ रही है .प्रदेश के चंबल संभाग में एक पुलिस कप्तान को रातों-रात सिर्फ इसलिए बदल दिया गया क्योंकि उसने एक जन प्रतिनिधि के बेटे के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करके निर्देश दे दिए थे .
दुनिया जानती है की एक मामूली से थाना प्रभारी को हटवाने के लिए जनता को कितने पापड़ बेलना पड़ते हैं लेकिन एक आईपीएस अफसर एक फोन पर हट जाये तो आप क्या कहेंगे ?न कोई जांच,न नोटिस,न सवाल,न जबाब और सीधे स्थानांतरण का सीधा सीधा मतलब है कि सरकार को पुलिस के इक़बाल की फ़िक्र है ही नहीं .पुलिस का इक़बाल बढ़ाने के बजाय उसे धूल में मिलाने पर आमादा सरकार किस के बूते प्रदेश की क़ानून और व्यवस्था को भाल करेगी ,आप समझ सकते हैं ?
एक आई पीएस अफसर के साथ की गयी इस अविवेकपूर्ण कार्रवाई ने दो बातें साफ़ कर दीं हैं,पहली तो ये कि प्रदेश के पुलिस महानिदेशक के पास रीढ़ की हड्डी है ही नहीं,यानि वे अपने मातहतों के इक़बाल की रक्षा करने में असमर्थ हैं क्योंकि उन्हें पुलिस के इक़बाल की परवाह है ही नहीं .
पुलिस चूंकि वर्दीधारी अनुशासित फ़ोर्स है इसलिए अपने साथ होने वाली किसी भी सियासी ज्यादती का प्रतिकार खुलकर नहीं कर सकती ऐसे में सत्ता को छूट मिल जाती है की वो पुलिस का मनमाना इस्तेमाल करे .ऐसा जहाँ-जहँ भी हुआ है,वहां-वहां कानों और व्यवस्था की धज्जियां उड़ी हैं.मध्यप्रदेश में एक बार फिर इसका श्रीगणेश हो चुका है तत्कालीन मुख्यमत्री अर्जुन सिंह के कार्यकाल में पुलिस के इक़बाल के कारण दस्यु समस्या के निदान में खासी कामयाबी मिली थी.2006 में भी शिवराज सिंह चौहान ने भी पुलिस के इक़बाल का ख्याल रखा तो जगजीवन परिहार जैसे बड़े दस्यु गिरोहों का खात्मा हो गया था ,लेकिन बाद में सब पुलिस के इक़बाल का ख्याल रखना भूल गए .
जिलों और सब डिवीजनों में पुलिस अफसरों की पदस्थापना में स्थानीय विधायकों का ख्याल रखा जाता रहा है और रखा भी जाना चाहिए किन्तु जिला प्रमुख जैसे पदों पर यदि विधायकों के हितों का संरक्षण करने के लिए पुलिस कप्तानों को शतरंज की गोटों की तरह चाहे जब बदला जाएगा तो अराजकता पैदा होगी .क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक जन प्रतिनिध के परिजन के खिलाफ कार्रवाई पर रातों रात किसी आईपीएस के तबादले के बाद नया अधिकारी या थाना स्तर का पुलिस अफसर खुलकर अपना काम कर सकेगा ?
पुलिस के हाथ में बन्दूक हर समय नहीं रहती,एक व्रडीई होती है और उसी के इक़बाल के सहारे पुलिस का आधा काम चलता है यदि उसे भी समाप्त कर दिया जाएगा तो पुलिस भी असहाय हो जाएगी ,क्योंकि एक तो हमारे यहां पहले से पुलिस का चेहरा भ्र्ष्ट,अमानवीय और सत्ता की कठपुतली का रहा है ऊपर से सत्ताधीश उसे और विकृत करने पर आमादा हों तो पुलिस का भगवान ही मालिक है .शीर्ष पदों पर कम से कम तीन साल काम करने का नियम बनाकर उसे तोड़ने की जल्दबाजी आत्मघाती है .जब पुलिस कप्तान की पदस्थापना इतनी अस्थिर है तो बाक़ी का क्या हाल होगा आप कल्पना कर सकते हैं ?और ऐसी पुलिस क़ानून और व्यवस्था के लिए क्यों समर्पित होकर काम करेगी ?
दुःख की बाद ये है कि पुलिस के इक़बाल के पक्ष में आज न विपसख है और न कोई दूसरा,पुलिस असहाय खड़ी है ,क्योंकि सबके अपने-अपने हित हैं और सबकी अपनी-अपनी सीमाएं .जनहित से किसी का कोई लेना-देना नहीं है .जनहित भी पुलिस इक़बाल की तरह “बेचारा”है